दुर्गासप्तशती अर्थ सहित श्री शिवस्तोत्र अर्थ सहित <<<< दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 (Durga Saptashati – 12 By वनिता कासनियां पंजाब दुर्गा सप्तशती अध्याय , दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 में, सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 29 श्लोक आते हैं। इस पोस्ट से सम्बन्धित ,एक महत्वपूर्ण बात इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 के सभी 29 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं। अध्याय सिर्फ हिन्दी में सम्पूर्ण अध्याय 13 सिर्फ हिंदी में पढ़ने के लिए, अर्थात सभी श्लोक हाईड (hide) करने के लिए क्लिक करें अध्याय श्लोक अर्थ सहित इस अध्याय के सभी श्लोक अर्थ सहित पढ़ने के लिए (यानी की सभी श्लोक unhide या show करने के लिए) क् साथ ही साथ हर श्लोक के स्थान पर एक छोटा सा arrow है, जिसे क्लिक करने पर, वह श्लोक दिखाई देगा। और सभी श्लोक हाईड और शो (दिखाने) के लिए भी लिंक दी गयी है। माँ दुर्गा को नमस्कार ॥ध्यानम्॥ ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥ ध्यान जो उदयकालके सूर्यमण्डलकी-सी कान्ति धारण करनेवाली हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं तथा जो अपने हाथोंमें पाश, अंकुश, वर एवं अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं, उन शिवादेवीका मैं ध्यान करता (करती) हूँ। कल्याणदायिनी माँ शिवा को प्रणाम सभी श्लोक – Hide | Show ॐ ऋषिरुवाच॥१॥ एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्। एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥ मेधा ऋषि कहते हैं – राजन्! इस प्रकार मैंने तुमसे देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया, जो इस जगत को धारण करती हैं, उन देवी का ऐसा ही प्रभाव है। सभी श्लोक – Hide | Show विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया। तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥ मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे। तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥४॥ वे ही विद्या, उत्पन्न करती है। भगवान विष्णु की मायास्वरूपा उन भगवती के द्वारा ही तुम, ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन मोहित होते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होंगे। महाराज! तुम उन्हीं परमेश्वरी की शरण में जाऒ। जगतजननी माँ भगवती को नमस्कार सभी श्लोक – Hide | Show आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥ आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं। सभी श्लोक – Hide | Show मार्कण्डेय उवाच॥६॥ इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥७॥ प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्। निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥८॥ मार्कंडेयजी कहते हैं – मेधा मुनि के ये वचन सुनकर राजा सुरथ ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन महाभाग महर्षि को प्रणाम किया। वे अत्यंत ममता और राज्य के छिन जाने से बहुत खिन्न हो चुके थे। सभी श्लोक – Hide | Show जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने। संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥९॥ महामुने! इसलिए विरक्त होकर राजा तथा वैश्य तत्काल तपस्या को चले गए और वे जगदम्बा के दर्शन के लिए नदी के तट पर रहकर तपस्या करने लगे। माँ जगदम्बा को प्रणाम हे देवी माँ, हमें सद्बुद्धि दो सभी श्लोक – Hide | Show स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्। तौ तस्मिन पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥१०॥ वे वैश्य उत्तम देवीसूक्त का जप करते हुए तपस्या में प्रवृत हुए। वे दोनों नदी के तटपर देवी की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पुष्प, धूप और हवन आदि के द्वारा उनकी आराधना करने लगे। माँ भवानी को नमस्कार सभी श्लोक – Hide | Show अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः। निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥११॥ उन्होंने पहले तो आहार को धीरे-धीरे कम किया। फिर बिलकुल निराहार रहकर देवी में ही मन लगाए एकाग्रता पूर्वक उनका चिंतन आरम्भ किया। सभी श्लोक – Hide | Show ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्। एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥ वे दोनों लगातार तीन वर्ष तक संयमपूर्वक आराधना करते रहे। अम्बा माता को प्रणाम सभी श्लोक – Hide | Show परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥१३॥ इसपर प्रसन्न होकर जगतको धारण करनेवाली चंडिका देवी ने दर्शन देकर कहा – सभी श्लोक – Hide | Show देव्युवाच॥१४॥ यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन। मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥१५॥ देवी बोली – राजन्! तथा अपने कुल को आनंदित करने वाले वैश्य! तुम लोग जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, वह मुझसे मांगो। मैं संतुष्ट हूं, अत: तुम्हें वह सब कुछ दूंगी। सभी श्लोक – Hide | Show मार्कण्डेय उवाच॥१६॥ ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि। अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥१७॥ मार्कंडेयजी कहते हैं – तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य मांगा तथा इस जन्म में भी शत्रुऒं की सेना को बलपूर्वक नष्ट करके पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लेने का वरदान मांगा। सभी श्लोक – Hide | Show सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः। ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम्॥१८॥ वैश्य का चित्त संसार की ऒर से खिन्न एवं विरक्त हो चुका था और वे बड़े बुद्धिमान थे। अत: उस समय उन्होंने तो ममता और अहंता रूप आसक्ति का नाश करने वाला ज्ञान मांगा। सभी श्लोक – Hide | Show देव्युवाच॥१९॥ स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥२०॥ देवी बोलीं – राजन्! तुम थोड़े ही दिनोंमें शत्रुऒं को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लोगे। सभी श्लोक – Hide | Show हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥२१॥ अब वहां तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। सभी श्लोक – Hide | Show मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥२२॥ सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥२३॥ फिर मृत्यु के पश्चात् तुम भगवान् विवस्वान (सूर्य) के अंश से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होऒगे। सभी श्लोक – Hide | Show वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥ वैश्यवर्य! तुमने भी जिस वर को मुझसे प्राप्त करने की इच्छा की है, उसे देती हूं। तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान प्राप्त होगा। सभी श्लोक – Hide | Show मार्कण्डेय उवाच॥२६॥ इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥२७॥ बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता। एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥२८॥ मार्कंडेयजी कहते हैं – इस प्रकार उन दोनों को मनोवांछित वरदान देकर तथा उनके द्वारा भक्तिपूर्वक अपनी स्तुति सुनकर देवी अम्बिका तत्काल अंतर्धान हो गईं। सभी श्लोक – Hide | Show सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥२९॥ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥ इस तरह देवी से वरदान पाकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ सूर्य से जन्म ले सावर्णिक नामक मनु होंगे। सभी श्लोक – Hide | Show इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत देवी माहाम्य में सुरथ और वैश्य को वरदान नामक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ दुर्गा सप्तशती अध्याय
By वनिता कासनियां पंजाब
दुर्गा सप्तशती अध्याय ,
दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 में,
सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान
दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 29 श्लोक आते हैं।
इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात
इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 के सभी 29 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।
अध्याय सिर्फ हिन्दी में
सम्पूर्ण अध्याय 13 सिर्फ हिंदी में पढ़ने के लिए,
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अध्याय श्लोक अर्थ सहित
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साथ ही साथ हर श्लोक के स्थान पर
एक छोटा सा arrow है, जिसे क्लिक करने पर,
वह श्लोक दिखाई देगा।
और सभी श्लोक हाईड और शो (दिखाने) के लिए भी लिंक दी गयी है।

माँ दुर्गा को नमस्कार
॥ध्यानम्॥
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥
ध्यान
जो उदयकालके सूर्यमण्डलकी-सी कान्ति धारण करनेवाली हैं,
जिनके चार भुजाएँ और
तीन नेत्र हैं
तथा जो अपने हाथोंमें
पाश, अंकुश, वर एवं
अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं,
उन शिवादेवीका मैं ध्यान करता (करती) हूँ।

कल्याणदायिनी माँ शिवा को प्रणाम
ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।
एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥
मेधा ऋषि कहते हैं –
राजन्! इस प्रकार मैंने तुमसे
देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया,
जो इस जगत को धारण करती हैं,
उन देवी का ऐसा ही प्रभाव है।
विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥४॥
वे ही विद्या, उत्पन्न करती है।
भगवान विष्णु की मायास्वरूपा
उन भगवती के द्वारा ही
तुम, ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन
मोहित होते हैं,
मोहित हुए हैं
तथा आगे भी मोहित होंगे।
महाराज!
तुम उन्हीं परमेश्वरी की शरण में जाऒ।

जगतजननी माँ भगवती को नमस्कार
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥
आराधना करने पर
वे ही मनुष्यों को भोग,
स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं।
मार्कण्डेय उवाच॥६॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥७॥
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥८॥
मार्कंडेयजी कहते हैं –
मेधा मुनि के ये वचन सुनकर
राजा सुरथ ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले
उन महाभाग महर्षि को प्रणाम किया।
वे अत्यंत ममता और
राज्य के छिन जाने से
बहुत खिन्न हो चुके थे।
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।
संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥९॥
महामुने!
इसलिए विरक्त होकर राजा
तथा वैश्य तत्काल तपस्या को चले गए और
वे जगदम्बा के दर्शन के लिए
नदी के तट पर रहकर तपस्या करने लगे।

माँ जगदम्बा को प्रणाम
हे देवी माँ, हमें सद्बुद्धि दो
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।
तौ तस्मिन पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥१०॥
वे वैश्य
उत्तम देवीसूक्त का जप करते हुए
तपस्या में प्रवृत हुए।
वे दोनों नदी के तटपर
देवी की मिट्टी की मूर्ति बनाकर
पुष्प, धूप और हवन आदि के द्वारा
उनकी आराधना करने लगे।

माँ भवानी को नमस्कार
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥११॥
उन्होंने पहले तो
आहार को धीरे-धीरे कम किया।
फिर बिलकुल निराहार रहकर
देवी में ही मन लगाए
एकाग्रता पूर्वक
उनका चिंतन आरम्भ किया।
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥
वे दोनों लगातार तीन वर्ष तक
संयमपूर्वक आराधना करते रहे।

अम्बा माता को प्रणाम
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥१३॥
इसपर प्रसन्न होकर
जगतको धारण करनेवाली
चंडिका देवी ने दर्शन देकर कहा –
देव्युवाच॥१४॥
यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥१५॥
देवी बोली –
राजन्!
तथा अपने कुल को आनंदित करने वाले वैश्य!
तुम लोग जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो,
वह मुझसे मांगो। मैं संतुष्ट हूं,
अत: तुम्हें वह सब कुछ दूंगी।
मार्कण्डेय उवाच॥१६॥
ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥१७॥
मार्कंडेयजी कहते हैं –
तब राजा ने
दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य मांगा
तथा इस जन्म में भी शत्रुऒं की सेना को बलपूर्वक नष्ट करके
पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लेने का वरदान मांगा।
सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम्॥१८॥
वैश्य का चित्त
संसार की ऒर से खिन्न एवं
विरक्त हो चुका था और
वे बड़े बुद्धिमान थे।
अत: उस समय उन्होंने तो
ममता और अहंता रूप
आसक्ति का नाश करने वाला
ज्ञान मांगा।
देव्युवाच॥१९॥
स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥२०॥
देवी बोलीं –
राजन्! तुम थोड़े ही दिनोंमें शत्रुऒं को मारकर
अपना राज्य प्राप्त कर लोगे।
हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥२१॥
अब वहां तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा।
मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥२२॥
सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥२३॥
फिर मृत्यु के पश्चात्
तुम भगवान् विवस्वान (सूर्य) के अंश से जन्म लेकर
इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होऒगे।
वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥
वैश्यवर्य!
तुमने भी जिस वर को
मुझसे प्राप्त करने की इच्छा की है,
उसे देती हूं।
तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान प्राप्त होगा।
मार्कण्डेय उवाच॥२६॥
इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥२७॥
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥२८॥
मार्कंडेयजी कहते हैं –
इस प्रकार उन दोनों को
मनोवांछित वरदान देकर तथा
उनके द्वारा भक्तिपूर्वक अपनी स्तुति सुनकर
देवी अम्बिका तत्काल अंतर्धान हो गईं।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥२९॥
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥
इस तरह देवी से वरदान पाकर
क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ
सूर्य से जन्म ले सावर्णिक नामक मनु होंगे।
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में
सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत
देवी माहाम्य में सुरथ और वैश्य को वरदान नामक
तेरहवां अध्याय पूरा हुआ
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