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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या आप लोग माता सरस्वती की तस्वीर को 1001 अपवोट दे सकते हैं?By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

क्या आप लोग माता सरस्वती की तस्वीर को 1001 अपवोट दे सकते हैं? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
#निर्जला #एकादशी का ये कठिन व्रत अगर कोई मनुष्य करे तो सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है. By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब  इस व्रत को साल भर में आने वाली सभी एकादशियों में सबसे उत्तम माना गया है. कहते हैं इस व्रत का कई गुना फल व्रत करने वाले को मिलता है. ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही निर्जला एकादशी कहा जाता है जो इस बार 21 जून को होगी. इस एकादशी के नाम से ही ज्ञात है कि इसमें पानी की एक बूंद भी ग्रहण नहीं की की जाती है। #निर्जला #एकादशी #व्रत कथा कहते हैं कि एक बार भीमसेन ने व्यास जी को कहा कि वो भूखे नहीं रह सकते. वो दान कर सकते हैं, भक्ति और भगवान की विधि विधान से पूजा सकते हैं लेकिन एक समय भी बिना भोजन किए रहना उनके लिए मुमकिन नहीं है. लिहाजा उनके लिए व्रत करना संभव नहीं है. ऐसे में उन्हें कोई ऐसा व्रत बताइए जो सिर्फ एक बार करने से साल भर के व्रतों का फल उन्हें मिल जाए. तब व्यास जी ने उन्हें ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी के बारे में बताया था. वृषभ और मिथुन की संक्रांति के बीच आने वाली इस एकादशी पर अन्न ही नहीं बल्कि जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं की जाती. ल...
. "पापनाशिनी गंगा" By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब           एक समय शिव जी महाराज पार्वती के साथ हरिद्वार में घूम रहे थे। पार्वती जी ने देखा कि सहस्त्रों मनुष्य गंगा में नहा-नहाकर ‘हर-हर गंगे’ कहते चले जा रहे हैं परंतु प्राय: सभी दु:खी और पाप परायण हैं। तब पार्वती जी ने बड़े आश्चर्य से शिव जी से पूछा कि "हे देव ! गंगा में इतनी बार स्नान करने पर भी इनके पाप और दु:खों का नाश क्यों नहीं हुआ ? क्या गंगा में सामर्थ्य नहीं रही ?" शिवजी ने कहा, ‘‘प्रिये ! गंगा में तो वही सामर्थ्य है, परंतु इन लोगों ने पापनाशिनी गंगा में स्नान ही नहीं किया है तब इन्हें लाभ कैसे हो ?’’ पार्वती जी ने आश्चर्य से कहा कि - ‘‘स्नान कैसे नहीं किया ? सभी तो नहा-नहा कर आ रहे हैं। अभी तक इनके शरीर भी नहीं सूखे हैं।’’ शिवजी ने कहा, ‘‘ये केवल जल में डुबकी लगाकर आ रहे हैं। तुम्हें कल इसका रहस्य समझाऊंगा।’’           दूसरे दिन बड़े जोर की बरसात होने लगी। गलियाँ कीचड़ से भर गईं। एक चौड़े रास्ते में एक गहरा गड्ढा था, चारों ओर लपटीला कीचड़ भर रहा था। शिवजी ने लीला से ही वृद्ध र...

. "गंगा अवतरण कथा"By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब गंगा, जाह्नवी और भागीरथी कहलानी वाली ‘गंगा नदी’ भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह मात्र एक जल स्रोत नहीं है, बल्कि भारतीय मान्यताओं में यह नदी पूजनीय है जिसे ‘गंगा मां’ अथवा ‘गंगा देवी’ के नाम से सम्मानित किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा पृथ्वी पर आने से पहले देवलोक में रहती थीं। गंगा नदी के पृथ्वी लोक में आने के पीछे कई सारी लोक कथाएँ प्रचलित हैं, लेकिन इस सबसे अहम एवं रोचक कथा है पुराणों में। एक पौराणिक कथा के अनुसार अति प्राचीन समय में पर्वतराज हिमालय और सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना की अत्यंत रूपवती एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएं थीं। दोनों कन्याओं में से बड़ी थी गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम था उमा। कहते हैं बड़ी पुत्री गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीय गुणों से सम्पन्न थी। लेकिन साथ ही वह किसी बन्धन को स्वीकार न करने के लिए भी जानी जाती थी। हर कार्य में अपनी मनमानी करना उसकी आदत थी। देवलोक में रहने वाले देवताओं की दृष्टि गंगा पर पड़ी। उन्होंने उसकी असाधारण प्रतिभा को सृष्टि के कल्याण के लिए चुना और उसे अपने साथ देवलोक ले गए, तथा भगवान् विष्णु की सेवा में भेज दिया। अब पर्वतराज के पास एक ही कन्या शेष थी, उमा। उमा ने भगवान शिव की तपस्या की और तप पूर्ण होने पर भगवान शंकर को ही वर के रूप में मांग लिया। गंगा के पृथ्वी पर आने की कथा का आरम्भ होता है भगवान राम की नगरी अयोध्या से। जिसे पुराणों में अयोध्यापुरी के नाम से जाना जाता था। वहाँ सगर नाम के एक राजा थे जिनकी कोई सन्तान नहीं थी। सगर राजा की दो रानियाँ थीं - केशिनी तथा सुमति, किन्तु दोनों से ही राजा को पुत्र की उत्पत्ति नहीं हो रही थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने दोनों पत्नियों को साथ लेकर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में तपस्या करने का फैसला किया। एक लंबी तपस्या के बाद महर्षि भृगु राजा और उनकी पत्नियों से प्रसन्न हुए और वरदान देने के लिए प्रकट हुए। उन्होंने कहा, “हे राजन ! तुम्हारी तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ और तुम्हारी दोनों पत्नियों को पुत्र का वरदान देता हूँ। लेकिन दोनों में से एक पत्नी को केवल एक पुत्र की प्राप्ति होगी, जो वंश को आगे बढ़ाने में सहायक साबित होगा। तथा दूसरी पत्नी को 60 हज़ार पुत्रों का वर हासिल होगा। अब तुम यह फैसला कर लो कि किसे कौन सा वरदान चाहिए।“ इस पर राजा की पहली पत्नी केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और रानी सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की। उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। दूसरी ओर रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसे फोड़ने पर कई सारे छोटे-छोटे पुत्र निकले, जिनकी संख्या साठ हजार थी। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। समय बीतने पर सभी पुत्र बड़े हो गए। महाराज सगर का ज्येष्ठ एवं वंश को आगे बढ़ाने वाला पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था। उसके कहर से सारी प्रजा परेशान थी, इसीलिए परिणामस्वरूप राजा ने उसे नगर से बाहर कर दिया। कुछ समय बाद असमंजस के यहाँ अंशुमान नाम का एक पुत्र हुआ। वह अपने पिता से बिल्कुल विपरीत स्वभाव का था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी, पराक्रमी एवं लोगों की सहायता करने वाला था। एक दिन राजा सगर ने महान अश्वमेघ यज्ञ करवाने का फैसला किया जिसके लिए उन्होंने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि को चुना और वहाँ एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। इसके बाद अश्वमेघ यज्ञ के लिए श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी सेना को उसके पीछे-पीछे भेज दिया। यज्ञ सफलतापूर्वक बढ़ रहा था जिसे देख इन्द्र देव काफी भयभीत हो गए। तभी उन्होंने एक राक्षस का रूप धारण किया और हिमालय पर पहुँचकर राजा सगर के उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाते ही राजा सगर के होश उड़ गए। उन्होंने शीघ्र ही अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को किसी भी अवस्था (जीवित या मृत) में पकड़कर लेकर आओ। आदेश सुनते ही सभी पुत्र खोजबीन में लग गए। जब पूरी पृथ्वी खोजने पर भी घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने पृथ्वी को खोदना शुरू कर दिया, यह सोच कर कि शायद पाताल लोक में उन्हें घोड़ा मिल जाए। अब पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गए। वहाँ उन्होंने देखा कि कपिलमुनि आँखें बन्द किए बैठे हैं और ठीक उनके पास यज्ञ का वह घोड़ा बंधा हुआ है जिसे वह लंबे समय से खोज रहे थे। इस पर सभी मंदबुद्धि पुत्र क्रोध में कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उन्हें अपशब्द कहने लगे। उनके इस कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। आँखें खुलती ही उन्होंने क्रोध में सभी राजकुमारों को अपने तेज से भस्म कर दिया। लेकिन इसकी सूचना राजा सगर को नहीं थी। जब लंबा समय बीत गया तो राजा फिर से चिंतित हो गए। अब उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिए आदेश दिया। आज्ञा का पालन करते हुए अंशुमान उस रास्ते पर निकल पड़ा जो रास्ता उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में उसे जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिलते वह उनका सम्मानपूर्वक आदर-सत्कार करता। खोजते-खोजते वह कपिल आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ का दृश्य देख वह बेहद आश्चर्यचकित हुआ। उसने देखा कि भूमि पर उसके साठ हजार चाचाओं के भस्म हुए शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। यह देख वह निराश हो गया। अब उसने राख को विधिपूर्वक प्रवाह करने के लिए जलाशय खोजने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ ना मिला। तभी उसकी नजर अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उसने गरुड़ से सहायता माँगी तो उन्होंने उसे बताया कि किस प्रकार से कपिल मुनि द्वारा उसके चाचाओं को भस्म किया गया। वह आगे बोले कि उसके चाचाओं की मृत्यु कोई साधारण नहीं थी इसीलिए उनका तर्पण करने के लिए कोई भी साधारण सरोवर या जलाशय काफी नहीं होगा। इसके लिए तो केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करना सही माना जाएगा। गरुड़ द्वारा राय मिलने पर अंशुमान घोड़े को लेकर वापस अयोध्या पहुँचा और राजा सगर को सारा वाकया बताया। राजा काफी दु:खी हुए लेकिन अपने पुत्रों का उद्धार करने के लिए उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का फैसला किया लेकिन यह सब होगा कैसे, उन्हें समझ नहीं आया। कुछ समय पश्चात् महाराज सगर का देहान्त हो गया जिसके बाद अंशुमान को राजगद्दी पर बैठाया गया। आगे चलकर अंशुमान को दिलीप नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। उसके बड़े होने पर अंशुमान ने उसे राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालय की गोद में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगे। उनके लगातार परिश्रम के बाद भी उसे सफलता हासिल ना हुई और कुछ समय बाद अंशुमान का देहान्त हो गया। अंशुमान की तरह ही उसके पुत्र दिलीप ने भी राज्य अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या शुरू कर दी। लेकिन उन्हें भी कोई फल हासिल ना हुआ। दिलीप के बाद भगीरथ ने भी गंगा तपस्या का फैसला किया लेकिन उनकी कोई संतान ना होने के कारण उन्होंने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर हिमालय जाने का फैसला किया। भगीरथ की कठोर तपस्या से आखिरकार भगवान ब्रह्मा प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और मनोवांछित फल माँगने के लिए कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा, “हे प्रभु ! मैं आपके दर्शन से अत्यंत प्रसन्न हूँ। कृपया आप मुझे सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए गंगा का जल प्रदान कर दीजिए तथा साथ ही मुझे एक सन्तान भी दें ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो जाए।“ भगीरथ की प्रार्थना सुन ब्रह्मा जी मुस्कुराए और बोले, “हे वत्स ! मेरे आशीर्वाद से जल्द ही तुम्हारे यहाँ एक पुत्र होगा किन्तु तुम्हारी पहली इच्छा, 'गंगा का जल देना' यह मेरे लिए कठिन कार्य है। क्योंकि गंगा भगवान् विष्णु की सेवा में हैं। अतः तुम्हें भगवान् विष्णु को प्रसन्न करके उनसे गंगा को धरती पर लाने की प्रार्थना करनी होगी। बहुत लम्बे समय तक कठोर तपस्या करने के उपरांत भगवान् विष्णु ने भगीरथ को दर्शन दिये तथा उनसे वरदान माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने भगवान् विष्णु से भी अपनी प्रार्थना दोहराई तब भगवान् विष्णु ने कहा- "भगीरथ ! गंगा बहुत चंचल हैं, और जब वे अपने पूर्ण वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगी तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी, और वे सीधे पाताल में चली जायँगी। यदि गंगा के वेग को संभालने की किसी में क्षमता है तो वह है केवल महादेवजी में। इसीलिए तुम्हें पहले भगवान शिव को प्रसन्न करना होगा, तभी तुम गंगा को धरती पर ले जा पाओगे।“ भगवान् विष्णु से अनुमति मिलने के बाद भगीरथ ने गंगा का वेग संभालने के लिये एक वर्ष तक पैर के अंगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या की। इस दौरान उन्होंने वायु के अलावा अन्य किसी भी चीज़ का ग्रहण नहीं किया। उनकी इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी ने उन्हें दर्शन दिए और बोले, “हे परम भक्त ! तुम्हारी भक्ति से मैं बेहद प्रसन्न हुआ। मैं अवश्य तुम्हारी मनोकामना को पूरा करूँगा, जिसके लिए मैं अपने मस्तक पर गंगा जी को धारण करूँगा।“ इतना कहकर भगवान शिव वापस अपने लोक चले गए। यह सूचना जब गंगा जी तक पहुँची तो वह चिंतित हो गईं, क्योंकि वह देवलोक छोड़ कहीं जाना नहीं चाहती थीं। वे भगवान् विष्णु से प्रार्थना की। भगवान् विष्णु ने कहा- "मृत्युलोक के कल्याण के लिये तुम्हें धरती पर जाना ही होगा। वहाँ के जीव तुम्हारे जल का स्पर्श पाकर पाप मुक्त होंगे, और उनका उद्धार होगा।" गंगाजी ने कहा- किन्तु इस प्रकार तो सभी जीवों के पाप से तो मेरा पूरा अस्तित्व ही मैला हो जायेगा और सभी पाप मुझमें भर जायेंगे।" भगवान् बोले- "नहीं देवी ! ऐसा नहीं होगा, जब भी किसी सन्त से तुम्हारे जल का स्पर्श होगा तुम पुनः पूर्णतः पाप मुक्त पवित्र हो जाओगी।" भगवान् विष्णु से आश्वस्त हो गंगा श्रीहरि विष्णु चरणों से होकर वहाँ से चल दीं। अपने चंचल स्वभाव के अनुरूप उन्होंने योजना बनाई कि वह अपने प्रचण्ड वेग से शिवजी को बहा कर पाताल लोक ले जाएंगी। परिणामस्वरूप गंगा जी भयानक वेग से शिवजी के सिर पर अवतरित हुईं, लेकिन शिवजी गंगा की मंशा को समझ चुके थे। गंगा को अपने साथ बाँधे रखने के लिए महादेव जी ने गंगा धाराओं को अपनी जटाओं में धीरे-धीरे बाँधना शुरू कर दिया। अब गंगा जी इन जटाओं से बाहर निकलने में असमर्थ थीं। गंगा जी को इस प्रकार शिवजी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से शिव जी फिर से प्रसन्न हुए और आखिरकार गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ दिया। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बंट गईं। इन धाराओं में से पहली तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। अन्य तीन सुचक्षु, सीता और सिन्धु धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और आखिरी एवं सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चल पड़ी। महाराज जहाँ भी जाते वह धारा उनका पीछा करती। एक दिन गलती से चलते-चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुंचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी बहते हुए अनजाने में उनके यज्ञ की सारी सामग्री को अपने साथ बहाकर ले गईं, जिस पर ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। अंत में ऋषि जह्नु ने अपने कानों से गंगा जी को बहा दिया और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जी का नाम जाह्नवी भी पड़ा। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते-चलते उस स्थान पर पहुँचीं, जहाँ उसके चाचाओं की राख पड़ी थी। उस राख का गंगा के पवित्र जल से मिलन होते ही सगर के सभी पुत्रों की आत्मा स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गई। ----------:::×:::---------- "नमामि गंगे"*******************************************

. "गंगा अवतरण कथा" By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब            गंगा, जाह्नवी और भागीरथी कहलानी वाली ‘गंगा नदी’ भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह मात्र एक जल स्रोत नहीं है, बल्कि भारतीय मान्यताओं में यह नदी पूजनीय है जिसे ‘गंगा मां’ अथवा ‘गंगा देवी’ के नाम से सम्मानित किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा पृथ्वी पर आने से पहले देवलोक में रहती थीं।             गंगा नदी के पृथ्वी लोक में आने के पीछे कई सारी लोक कथाएँ प्रचलित हैं, लेकिन इस सबसे अहम एवं रोचक कथा है पुराणों में। एक पौराणिक कथा के अनुसार अति प्राचीन समय में पर्वतराज हिमालय और सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना की अत्यंत रूपवती एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएं थीं। दोनों कन्याओं में से बड़ी थी गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम था उमा। कहते हैं बड़ी पुत्री गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीय गुणों से सम्पन्न थी। लेकिन साथ ही वह किसी बन्धन को स्वीकार न करने के लिए भी जानी जाती थी। हर कार्य में अपनी मनमानी करना उसकी आदत थी। देवलोक में रहने वाले देवताओं की दृष्टि गं...

. सखाओं का कन्हैयाBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब १-तन्मय यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा। श्रुति कहती है- 'रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।' वह परमात्मा ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य, चन्द्र-तारे सब बन गया है, किन्तु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हें नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपनेमें तन्मय कर लेता है| ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय-एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाकार होता है ? अथवा किसी गाय, बछड़े-बछड़ी को दुलराने-पुचकारने लगता है तो इसे अपनी कोई सुध-बुध रहती है। यह सखाओं से ही नहीं, मयूर-मेढ़क-कपि शशक से भी खेल में लगता हो तो तन्मय। गाने में, नाचने में, कूदने में ही नहीं, चिढ़ाने में भी लगता है तो तन्मय ही होकर लगता है। इसे आधे मन से कोई काम जैसे करना ही नहीं आता है। रही दूसरों की बात, सो मैया यशोदा का लाड़ला सामने हो तो क्या किसी को अपने शरीर का स्मरण रह सकता है ? यह तो आते ही सबको अपने में खींचता, अपने से एक करता है, अन्ततः कृष्ण है न। अब आज की ही बात है, कन्हाई यमुना तट पर अकेला बैठा गीली रेत से कुछ बनाने में लगा था। बार-बार नन्हें करों से रेत उठाता था और तनिक-तनिक बहुत सम्हालकर धरता था ! पता नहीं कैसी रेत है कि टिकती ही नहीं। गिर-गिर पड़ती है रेत; किन्तु कन्हाई कहीं ऐसे हारने वाला है, वह लगा है अपने महानिर्माण में। लगा है–तन्मय है। पता नही सखा कब चले गये। दाऊ दादा भी चला गया। सबने पुकारा, बुलाया, कहा; किन्तु जब यह सुनता ही नहीं तो सब खीझ कर चले गये कि अकेला पड़ेगा तो स्वयं दौड़ा आवेगा; किन्तु इसे तो यह भी पता नहीं कि आसपास कोई सखा नहीं है, यह अकेला है। मैया पुकारती रही, पुकारती रही और अन्त में समीप आ गयी यह देखने कि उसका लाल कर क्या रहा है। क्यों सुनता नहीं। अन्ततः अब आतपमें कुछ प्रखरता आने लगी है। इस धूप में तो इस सुकुमार को नहीं रहने दिया जा सकता। कटि में केवल रत्नमेखला और कटिसूत्र है। कछनी तो इसे उत्पात लगती है। उसे आते ही खोलकर फेंक दिया था। कुछ पीछे रेत पर पड़ी है वह पीतकौशेय कछनी। बार-बार ढीली होने वाली कछनी को यह कब तक सम्हालता ? चरणों में मणि-नुपूर हैं। करो में कंकण हैं। भुजाओं में अंगद हैं। कण्ठ में छोटे मुक्ताओं के मध्य व्याघ्रनख हैं। कौस्तुभ है गले में। भाल पर बिखरी अलकों के मध्य कज्जल बिन्दु है। थोड़ी अलकों को समेटकर उनमें मैया ने एक मयूर पिच्छ लगा दिया है। बड़े-बड़े लोचन अञ्जन-मण्डित हैं। दोनों करों में गीली रेत लगी है। दोनों चरण आगे अर्ध कुञ्चित किये बैठा है। पूरे पदों पर, नितम्ब पर गीली रेत चिपकी है। स्थान-स्थान और वक्ष पर, कपोल पर भी रेत के कण लगे हैं। पुलिन पर बहुत से बालकों के पद-चिन्ह हैं। गीली रेत पर–सूखी रेत में भी शतशः बालकों के खेलने के चिन्ह हैं। रेत कहीं एकत्र है, कहीं कर पदों से फैलायी अथवा बिखेरी गयी है। गीली रेत पर कहीं छोटे गड्ढे हैं अथवा रेत की ढेरियाँ हैं। मैया इनके मध्य से ही चलती आयी है। उसने समीप आकर कन्धे पर कर रखकर पूछा है–'तू अकेला यहाँ क्या कर रहा है ?' 'मैं ?' चौंककर कन्हाई ने मुख उठाया–नेत्र हर्ष से चमक उठे– 'अरे, यह तो मैया है !' मुख धूप से कुछ अरुणाभ हो उठा है। भाल पर, कपोलों पर नन्हें स्वेद कण झलमला उठे हैं। मैया को देखकर यह झटपट उठ खड़ा हुआ है। 'तू अकेला यहाँ कर क्या रहा है ?' मैया किञ्चित् स्मित के साथ पूछती है। 'अकेला ?' श्याम एक बार सिर घुमाकर आसपास देखता है। उसे अब पता लगता है कि वह अकेला है। ये सब सखा–दाऊ दादा भी उसे छोड़कर चले गये ? अकेला वह कैसे रह सकता है; किन्तु अब तो मैया समीप आ गयी है। दोनों भुजाएँ मैया की गोद में जाने को उठा देता है। 'तू कर क्या रहा था ?' मैया हँसती है। कन्हाई को अब कहाँ स्मरण है कि वह क्या बना रहा था। एक बार मुख झुकाकर गीली रेत की उस नन्ही ढेरी को देखता है और फिर मैया के मुख की ओर देखता है दोनों भुजाएँ फैलाये। श्याम के नेत्रों में उलाहना है, खीझ है–'तू कैसी मैया है कि स्वयं समझ नही लेती कि उसका लाल क्या बना रहा था। जब वह इतनी तन्मयता से इस महानिर्माण में लगा था तो दुर्ग-ग्राम, गाय-बैल, कपि-गज.... कुछ तो बना ही रहा था। अब उसे तो स्मरण नहीं। उसे तो मैया की गोद में चढ़ना है, और मैया हँसती है। हँसती है और पूछती है।बाल वनिता महिला आश्रम यह भी कोई बात है कि मैया उसे गोद में नहीं लेती और पूछती है। अब यह खीझने वाला है। अपनी ही भावना में तन्मय, अब तो मैया की गोद और सम्भवतः उसका अमृतपय ही इसे स्मरण है। ● ● ● "जय जय श्री राधे"********************************************

सखाओं का कन्हैया By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब                                   १-तन्मय           यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा।           श्रुति कहती है-                         'रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।'           वह परमात्मा ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य, चन्द्र-तारे सब बन गया है, किन्तु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हें नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपनेमें तन्मय कर लेता है|           ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय-एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाकार ...

. सखाओं का कन्हैयाBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब १-तन्मय यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा। श्रुति कहती है- 'रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।' वह परमात्मा ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य, चन्द्र-तारे सब बन गया है, किन्तु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हें नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपनेमें तन्मय कर लेता है| ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय-एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाकार होता है ? अथवा किसी गाय, बछड़े-बछड़ी को दुलराने-पुचकारने लगता है तो इसे अपनी कोई सुध-बुध रहती है। यह सखाओं से ही नहीं, मयूर-मेढ़क-कपि शशक से भी खेल में लगता हो तो तन्मय। गाने में, नाचने में, कूदने में ही नहीं, चिढ़ाने में भी लगता है तो तन्मय ही होकर लगता है। इसे आधे मन से कोई काम जैसे करना ही नहीं आता है। रही दूसरों की बात, सो मैया यशोदा का लाड़ला सामने हो तो क्या किसी को अपने शरीर का स्मरण रह सकता है ? यह तो आते ही सबको अपने में खींचता, अपने से एक करता है, अन्ततः कृष्ण है न। अब आज की ही बात है, कन्हाई यमुना तट पर अकेला बैठा गीली रेत से कुछ बनाने में लगा था। बार-बार नन्हें करों से रेत उठाता था और तनिक-तनिक बहुत सम्हालकर धरता था ! पता नहीं कैसी रेत है कि टिकती ही नहीं। गिर-गिर पड़ती है रेत; किन्तु कन्हाई कहीं ऐसे हारने वाला है, वह लगा है अपने महानिर्माण में। लगा है–तन्मय है। पता नही सखा कब चले गये। दाऊ दादा भी चला गया। सबने पुकारा, बुलाया, कहा; किन्तु जब यह सुनता ही नहीं तो सब खीझ कर चले गये कि अकेला पड़ेगा तो स्वयं दौड़ा आवेगा; किन्तु इसे तो यह भी पता नहीं कि आसपास कोई सखा नहीं है, यह अकेला है। मैया पुकारती रही, पुकारती रही और अन्त में समीप आ गयी यह देखने कि उसका लाल कर क्या रहा है। क्यों सुनता नहीं। अन्ततः अब आतपमें कुछ प्रखरता आने लगी है। इस धूप में तो इस सुकुमार को नहीं रहने दिया जा सकता। कटि में केवल रत्नमेखला और कटिसूत्र है। कछनी तो इसे उत्पात लगती है। उसे आते ही खोलकर फेंक दिया था। कुछ पीछे रेत पर पड़ी है वह पीतकौशेय कछनी। बार-बार ढीली होने वाली कछनी को यह कब तक सम्हालता ? चरणों में मणि-नुपूर हैं। करो में कंकण हैं। भुजाओं में अंगद हैं। कण्ठ में छोटे मुक्ताओं के मध्य व्याघ्रनख हैं। कौस्तुभ है गले में। भाल पर बिखरी अलकों के मध्य कज्जल बिन्दु है। थोड़ी अलकों को समेटकर उनमें मैया ने एक मयूर पिच्छ लगा दिया है। बड़े-बड़े लोचन अञ्जन-मण्डित हैं। दोनों करों में गीली रेत लगी है। दोनों चरण आगे अर्ध कुञ्चित किये बैठा है। पूरे पदों पर, नितम्ब पर गीली रेत चिपकी है। स्थान-स्थान और वक्ष पर, कपोल पर भी रेत के कण लगे हैं। पुलिन पर बहुत से बालकों के पद-चिन्ह हैं। गीली रेत पर–सूखी रेत में भी शतशः बालकों के खेलने के चिन्ह हैं। रेत कहीं एकत्र है, कहीं कर पदों से फैलायी अथवा बिखेरी गयी है। गीली रेत पर कहीं छोटे गड्ढे हैं अथवा रेत की ढेरियाँ हैं। मैया इनके मध्य से ही चलती आयी है। उसने समीप आकर कन्धे पर कर रखकर पूछा है–'तू अकेला यहाँ क्या कर रहा है ?' 'मैं ?' चौंककर कन्हाई ने मुख उठाया–नेत्र हर्ष से चमक उठे– 'अरे, यह तो मैया है !' मुख धूप से कुछ अरुणाभ हो उठा है। भाल पर, कपोलों पर नन्हें स्वेद कण झलमला उठे हैं। मैया को देखकर यह झटपट उठ खड़ा हुआ है। 'तू अकेला यहाँ कर क्या रहा है ?' मैया किञ्चित् स्मित के साथ पूछती है। 'अकेला ?' श्याम एक बार सिर घुमाकर आसपास देखता है। उसे अब पता लगता है कि वह अकेला है। ये सब सखा–दाऊ दादा भी उसे छोड़कर चले गये ? अकेला वह कैसे रह सकता है; किन्तु अब तो मैया समीप आ गयी है। दोनों भुजाएँ मैया की गोद में जाने को उठा देता है। 'तू कर क्या रहा था ?' मैया हँसती है। कन्हाई को अब कहाँ स्मरण है कि वह क्या बना रहा था। एक बार मुख झुकाकर गीली रेत की उस नन्ही ढेरी को देखता है और फिर मैया के मुख की ओर देखता है दोनों भुजाएँ फैलाये। श्याम के नेत्रों में उलाहना है, खीझ है–'तू कैसी मैया है कि स्वयं समझ नही लेती कि उसका लाल क्या बना रहा था। जब वह इतनी तन्मयता से इस महानिर्माण में लगा था तो दुर्ग-ग्राम, गाय-बैल, कपि-गज.... कुछ तो बना ही रहा था। अब उसे तो स्मरण नहीं। उसे तो मैया की गोद में चढ़ना है, और मैया हँसती है। हँसती है और पूछती है।बाल वनिता महिला आश्रम यह भी कोई बात है कि मैया उसे गोद में नहीं लेती और पूछती है। अब यह खीझने वाला है। अपनी ही भावना में तन्मय, अब तो मैया की गोद और सम्भवतः उसका अमृतपय ही इसे स्मरण है। ● ● ● "जय जय श्री राधे"********************************************

. सखाओं का कन्हैया By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब                                   १-तन्मय           यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा।           श्रुति कहती है-                         'रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।'           वह परमात्मा ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य, चन्द्र-तारे सब बन गया है, किन्तु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हें नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपनेमें तन्मय कर लेता है|           ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय-एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाका...

"दृढ़ विश्वास"By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब मध्यप्रदेश के एक गाँव में चतुर्भुज भगवान का मन्दिर है। महाराजजी का अपने गुरुदेव के साथ वहाँ जाना होता था। वहाँ पूर्ण शौचाचार पूर्वक भगवान् की सेवा-पूजा होती है। उस मन्दिर के पुजारी की वृद्धा माताजी, जो सेवा-पूजा में सहयोगिनी थीं, एक बार अँधेरे में गिर गयीं और उनका कूल्हा टूट गया। उन्हें ठाकुरजी की सेवा न कर पाने का बड़ा क्लेश रहता था और वे उन्हें कठोर शब्दों में उलाहना देती रहती थीं। एक दिन वे वृद्ध माताजी अत्यन्त सबेरे-सबेरे घिसटती हुईं किसी तरह मन्दिर तक पहुँच गयीं, गर्भ गृह का ताला खोला और अन्दर से बन्द कर दिया। इधर उनके पुत्र पुजारीजी जब नित्य की तरह मन्दिर पहुँचे तो गर्भगृह को अन्दर से बन्द देखकर चोरी आदि की आशंका करने लगे। दरवाजा पीटने पर अन्दर से वृद्धा माताजी ने पुकारकर कहा, ठहरो खोलती हूँ और ऐसा कहकर वे सामान्य स्वस्थ रूप से चलकर दरवाजे तक आयीं और दरवाजा खोल दिया। उन्हें टूटे कूल्हे की पीड़ा से मुक्त देखकर सब आश्चर्यचकित थे। पूछने पर उन्होंने अपनी सहज ग्रामीण भाषा में बताया कि मैं आज चतुर्भुज भगवान् से लड़ाई करने आयी कि इन्होंने मेरा कूल्हा क्यों तोड़ दिया ? मैंने इनको कह दिया कि इसे ठीक कर दो, नहीं तो मैं तुम्हारा कूल्हा तोड़ दूँगी। मैंने चन्दन वाला चकला उठाया भी था, तभी उन्होंने मेरी कमर पर हाथ फेरकर कूल्हा जोड़ दिया। मैं चंगी हो गयी। इस प्रसंग के सम्बन्ध में पूछने पर भक्तमाली जी महाराज ने बताया कि हम लोग प्रायः भगवान् की मूर्ति में पाषाण अथवा काष्ठबुद्धि नहीं छोड़ पाते। उस वृद्धा माताजी की उस मूर्ति में दृढ़ भगवद्बुद्धि थी, इसलिये यह साक्षात् कृपा-परिणाम हुआ। बाल वनिता महिला आश्रम,* ----------:::×:::---------- "जय जय श्री राधे"*******************************************

 "दृढ़ विश्वास" By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब           मध्यप्रदेश के एक गाँव में चतुर्भुज भगवान का मन्दिर है। महाराजजी का अपने गुरुदेव के साथ वहाँ जाना होता था। वहाँ पूर्ण शौचाचार पूर्वक भगवान् की सेवा-पूजा होती है। उस मन्दिर के पुजारी की वृद्धा माताजी, जो सेवा-पूजा में सहयोगिनी थीं, एक बार अँधेरे में गिर गयीं और उनका कूल्हा टूट गया। उन्हें ठाकुरजी की सेवा न कर पाने का बड़ा क्लेश रहता था और वे उन्हें कठोर शब्दों में उलाहना देती रहती थीं।            एक दिन वे वृद्ध माताजी अत्यन्त सबेरे-सबेरे घिसटती हुईं किसी तरह मन्दिर तक पहुँच गयीं, गर्भ गृह का ताला खोला और अन्दर से बन्द कर दिया। इधर उनके पुत्र पुजारीजी जब नित्य की तरह मन्दिर पहुँचे तो गर्भगृह को अन्दर से बन्द देखकर चोरी आदि की आशंका करने लगे। दरवाजा पीटने पर अन्दर से वृद्धा माताजी ने पुकारकर कहा, ठहरो खोलती हूँ और ऐसा कहकर वे सामान्य स्वस्थ रूप से चलकर दरवाजे तक आयीं और दरवाजा खोल दिया। उन्हें टूटे कूल्हे की पीड़ा से मुक्त देखकर सब आश्चर्यचकित थे।       ...

क्या आप दुर्गा माता की ऐसी तस्वीर साझा कर सकते हैं, जिसे कम से कम 1000 अपवोट मिल सकें?By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबमाता से मत कहिए कि समस्या विकट है*** समस्या से ही कह दीजिए कि माता मेरे निकट है 🌺🔥🏹जय माता दी🔥🌺 देवी मां आपकी कोरोना से रक्षा करे 🌺

क्या आप दुर्गा माता की ऐसी तस्वीर साझा कर सकते हैं, जिसे कम से कम 1000 अपवोट मिल सकें? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब माता से मत कहिए कि समस्या विकट है*** समस्या से ही कह दीजिए कि माता मेरे निकट है 🌺🔥🏹 जय माता दी🔥🌺     देवी मां आपकी कोरोना से रक्षा करे 🌺🔥
इतिहास में भारत को क्यों माना जाता था विश्व गुरु कारण है ये? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब विश्व गुरु – हम सभी ने भारत देश का इतिहास पढ़ा है और भारत माता की महिमा की गाथाये सुनी हुई है। इतिहास के पन्नो में भारत को विश्व गुरु यानी की विश्व को पढ़ाने वाला अथवा पूरी दुनिया का शिक्षक कहा जाता था, क्योंकि भारत देश की प्राचीन अर्थव्यवस्था, राजनीती और यहाँ के लोगोंका ज्ञान इतना सम्रद्ध थी कि पूरब से लेकर पश्चिम तक सभी देश भारत के कायल थे। भारत  की सम्रद्धता और धन को देख कर विदेशी लोग इतने लालची हो गए थे कि उन्हें भारत पर आक्रमण करना पड़ा ताकि भारत के धन से अपने भूखे पेट भर सकें। लेकिन आज हम बात करने वाले है, भारत के विश्वगुरु होने की। हम सबने अक्सर नेताओं के भाषण में मुख्य रूप से मोदी जी के भाषण में, भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। इसलिए आज हम आप सब के सामने इसी बात को सिद्ध करने वाले हैं कि भारत ही विश्व गुरु कहलाने योग्य है। १. योग : योग की शुरुआत भारत में ही हमारे प्राचीन ऋषि मुनिया द्वारा की गई थी। आज के दौर में बिभिन्न मानसिक और शारीरिक समस्याओं से निजात पाने के लिए मैडिटेशन एक-लौता ऐ...

श्री गायत्री चालीसा ॥दोहा॥ह्रीं, श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड।शान्ति कान्ति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड॥जगत जननी, मंगल करनि, गायत्री सुखधाम।प्रणवों सावित्री, स्वधा स्वाहा पूरन काम॥बाल वनिता महिला आश्रम॥चौपाई॥भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी, गायत्री नित कलिमल दहनी।अक्षर चौविस परम पुनीता, इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता॥शाश्वत सतोगुणी सत रूपा, सत्य सनातन सुधा अनूपा।हंसारूढ़ सिताम्बर धारी, स्वर्ण कान्ति शुचि गगन-बिहारी॥पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला।ध्यान धरत पुलकित हित होई, सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥कामधेनु तुम सुर तरु छाया, निराकार की अदभुत माया।तुम्हरी शरण गहै जो कोई, तरै सकल संकट सों सोई॥सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, दिपै तुम्हारी ज्योति निराली।तुम्हरी महिमा पार न पावैं, जो शारद शत मुख गुन गावैं॥चार वेद की मात पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता।महामन्त्र जितने जग माहीं, कोउ गायत्री सम नाहीं॥सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै, आलस पाप अविद्या नासै।सृष्टि बीज जग जननि भवानी, कालरात्रि वरदा कल्याणी॥ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते, तुम सों पावें सुरता तेते।तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे, जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥महिमा अपरम्पार तुम्हारी, जय जय जय त्रिपदा भयहारी।पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना, तुम सम अधिक न जगमे आना॥तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा, तुमहिं पाय कछु रहै न कलेशा।जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई, पारस परसि कुधातु सुहाई॥तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई, माता तुम सब ठौर समाई।ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे, सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥सकल सृष्टि की प्राण विधाता, पालक पोषक नाशक त्राता।मातेश्वरी दया व्रत धारी, तुम सन तरे पातकी भारी॥जापर कृपा तुम्हारी होई, तापर कृपा करें सब कोई।मन्द बुद्धि ते बुद्धि बल पावें, रोगी रोग रहित हो जावें॥दारिद्र मिटै कटै सब पीरा, नाशै दुःख हरै भव भीरा।गृह क्लेश चित चिन्ता भारी, नासै गायत्री भय हारी॥सन्तति हीन सुसन्तति पावें, सुख संपति युत मोद मनावें।भूत पिशाच सबै भय खावें, यम के दूत निकट नहिं आवें॥जो सधवा सुमिरें चित लाई, अछत सुहाग सदा सुखदाई।घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी, विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥जयति जयति जगदम्ब भवानी, तुम सम ओर दयालु न दानी।जो सतगुरु सो दीक्षा पावे, सो साधन को सफल बनावे॥सुमिरन करे सुरूचि बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी।अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता, सब समर्थ गायत्री माता॥ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, योगी, आरत, अर्थी, चिन्तित, भोगी।जो जो शरण तुम्हारी आवें, सो सो मन वांछित फल पावें॥बल बुद्धि विद्या शील स्वभाउ, धन वैभव यश तेज उछाउ।सकल बढें उपजें सुख नाना, जो यह पाठ करै धरि ध्याना॥॥दोहा॥यह चालीसा भक्ति युत, पाठ करै जो कोय।तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

          श्री गायत्री चालीसा                     ॥दोहा॥ ह्रीं, श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड। शान्ति कान्ति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड॥ जगत जननी, मंगल करनि, गायत्री सुखधाम। प्रणवों सावित्री, स्वधा स्वाहा पूरन काम॥ बाल वनिता महिला आश्रम ॥चौपाई॥ भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी, गायत्री नित कलिमल दहनी। अक्षर चौविस परम पुनीता, इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता॥ शाश्वत सतोगुणी सत रूपा, सत्य सनातन सुधा अनूपा। हंसारूढ़ सिताम्बर धारी, स्वर्ण कान्ति शुचि गगन-बिहारी॥ पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला। ध्यान धरत पुलकित हित होई, सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥ कामधेनु तुम सुर तरु छाया, निराकार की अदभुत माया। तुम्हरी शरण गहै जो कोई, तरै सकल संकट सों सोई॥ सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, दिपै तुम्हारी ज्योति निराली। तुम्हरी महिमा पार न पावैं, जो शारद शत मुख गुन गावैं॥ चार वेद की मात पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता। महामन्त्र जितने जग माहीं, कोउ गायत्री सम नाहीं॥ सुमिरत हिय मे...